मंगलवार, 15 नवंबर 2011

बच्चे मन के सच्चे

बाल दिवस के दिन ही क्यों हमें बच्चों का ध्यान आ जाता है. साल भर हमारी इन बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं होता और जब हम जागते हैं, तो ख्याल आता है कि बच्चों के यह खेलने-कूदने के दिन हैं. वे जितना खेल में ध्यान देंगे उनमें उतनी ही स्फूर्ति और ताकत बनी रहेगी. शिक्षा विभाग ने भी एक कानून बना रखा है कि जहां भी स्कूल हों वहां खेल के मैदान अवश्य हों. ठीक ऐसे ही यदि कोई कालोनी डेव्लप कर रहा हो, तो उन्हें भी हर प्लान के साथ गार्डन के लिए जगह छोड़ कर रखना होगा और उसे बच्चों के लिए विशेष तौर पर तैयार करना होगा, लेकिन स्कूलों में इन खेल मैदानों की क्या स्थिति है, यह हम सभी जानते हैं. मैदान के नाम पर जो जमीन है वह ना तो समतल है ना ही स्कूलों में खेल सामग्री या खेल शिक्षक हैं. यह जरूर देखा गया है कि जैसे ही बरसात होती है इस उबड़-खाबड़ खेल मैदान में तालाब बन जाता है और वहां बच्चे शिक्षक की अनुपस्थिति में छप-छप खेल कर घर लौट आते हैं. वैसा ही हाल कालोनियों का है. उनके द्वारा बनाए गये नक्शे में जरूर गार्डन के लिए जगह छोड़ी जाती है और जब कालोनी डेव्लप हो जाती है तब लोगों की उस कालोनी में स्थान की मांग बढ़ती है, तो गार्डन की जमीन को बेच कर कालोनाईजर अपनी जेब गरम कर लेता है. ऐसे में ये नन्हे बच्चे या तो अपने घरों की छत में खेलने मजबूर होते हैं या फिर सड़कों को घेर कर कुछ समय के लिए क्रिकेट खेल कर अपना मन बहला लेते हैं. इनके खेलने पर मां-बाप की भी पाबंदी रहती है कि इस बच्चे के साथ ही खेलें या इसके साथ नहीं खेलें, तब बच्चा या तो टी.वी. से जा चिपकता या फिर कम्प्यूटर में गेम खेल टाइम पास करता है. क्या 14 नवम्बर के दिन जिसे हम बाल दिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाते हैं उसी दिन हमारे नेताओं की चेतना जागृत होगी? वे क्या हर साल इन बच्चों को सिर्फ कापी-पेन, फल या स्कूलों में विभिन्न स्पर्धा आयोजित करा इन्हें पुरस्कृत कर अपनी जिम्मेदारी से फारिग हो जाऐंगे? दूसरे दिन इन मासूम बच्चों के साथ फोटो सहित अखबारों में छप कर खुश होंगे कि हमने बच्चों के लिए ये किया वो किया. क्या हमारी नैतिक जिम्मेदारी इस एक दिवसीय कार्यक्रम के आयोजन के साथ समाप्त हो जाती है?

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